मथुरा के दर्शनीय स्थल

श्रीकृष्ण जन्मस्थान : श्री कृष्ण जन्मस्थान का निर्माण सर्वप्रथम श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र श्री बज्रनाभ जी ने कराया था। मथुरा नगरी के धार्मिक महत्व को देखते हुए सर्वप्रथम महमूद गजनवी ने इस पर आक्रमण किया तथा यहाँ के अनेक लीला स्थलों का विध्वंस कर दिया। इस मंदिर की भव्यता का उल्लेख मीर मुंशी अली उतवी ने लिखा कि इस मंदिर की शोभा का वर्णन न तो शब्दों में किया जा सकता है और न ही कोई चित्र बना कर अंकित कर सकता। पुनः शान्ति स्थापित होने पर इस मंदिर का निर्माण कन्नौज के राजा विजयचन्द्र ने संवत 1207 में कराया, परन्तु फ़िर इस देवालय को सिकंदर लोधी द्वारा संवत 1573 में ध्वस्त कर दिया। इस मन्दिर का पुनः निर्माण कराया गया जिसकी भव्यता का उल्लेख विदेशी सैलानियों(फ़्रांसीसी व इटली) द्वारा सन् 1650 में किया गया। तदोपरान्त मुगल शासक औरंगजेब ने 1669 ई० में इस मंदिर को ध्वस्त करके यहाँ मस्जिद का निर्माण कराया। बनारस के राजा पटनीमल ने पुनः मंदिर निर्माण कराने की इच्छा से इस मंदिर की भूमि को 1815 ई० में खरीदा। वर्तमान में इस विशाल मंदिर का निर्माण कल्याण के संपादक परम पूजनीय श्री हनुमान प्रसाद पोद्धार जी की प्रेरणा से भारत के अनेक धनी महानुभावों की आर्थिक सहायता से कराया गया।

विश्राम घाट: यह  ब्रज मण्डल में मथुरा का प्रमुख घाट है। माना जाता है कि असुर कंस के संहार के पश्‍चात् श्री कृष्ण जी और बलराम जी ने यहाँ यमुना जी में स्नान करके विश्राम किया था। विश्राम करने के कारण इसका नाम विश्राम घाट पड़ा। इस घाट पर स्नान करने का बड़ा ही महत्व है। यमुना जी और यमराज दोनों भाई बहिन हैं। यमुना जी ने लोक हित में यमराज से यह वरदान मांगा कि भाई दूज के दिन इस घाट पर जो भी स्नान करेगा, उसे आपका भय नहीं रहेगा इसीलिए इस दिन स्नान करने से मृत्यु का भय नहीं रहता। आज भी विश्राम घाट पर लाखों भाई बहिन मिलकर भाई दौज(यम द्वितीया) के दिन स्नान करते हैं। नित्य शाम को यमुना जी की भव्य आरती होती है। इसी के सामने यमुना पार दुर्वासा ऋषि का आश्रम है।

द्वारिकाधीश मंदिर : यह मथुरा का एक प्रमुख मंदिर है। यह मंदिर बहुत ही आकर्षक, कलात्मक एवं अति सुन्दर है। इस मंदिर का निर्माण ग्वालियर के कोषाध्यक्ष गोकुल दास पारीख द्वारा सन् 1814 ई० में कराया गया। इस मंदिर की सेवा-पूजा वल्लभकुली संप्रदाय के गोस्वामियों द्वारा की जाती है।

मधुवन : यह वन महोली ग्राम में स्थित है। सतयुग में भगवान विष्णु ने यहीं पर मधुकैटभ नामक असुर का वध किया था। त्रेता युग में मथुरा नगरी लवणासुर के आतंक से भयभीत थी। तब शत्रुघ्न जी ने लवणासुर का वध करके सभी मथुरावासियों को भयमुक्त किया। इसी स्थान पर बालक ध्रुव ने देवर्षि नारद जी द्वारा दिये गये मंत्र से भगवान की तपस्या की। यह स्थली श्री कृष्ण -बलराम जी की गोचारण भूमि भी रही है। भगवान श्री कृष्ण ने वैशाखी पूर्णिमा को यहाँ गोपिकाओं के साथ रासलीला की थी। यहाँ ध्रुव टीला, कृष्ण कुण्ड, लवणासुर की गुफ़ा आदि दर्शनीय स्थल हैं। 

तालवन : श्री कृष्ण-बलराम एवं अन्य सखा गाय चराते-चराते यहाँ पहुँच गये थे। सभी ग्वालवालों को यहाँ पहुँचकर भूख लगने लगी। तालवन में ताल वृक्ष पर लगे तालफ़लों की सुगन्ध उन्हें बहुत भा रही थी। लेकिन ग्वालवालों को धेनुकासुर के कारण फ़ल तोड़ने में डर लग रहा था। तब श्री कृष्ण-बलराम ने तालवृक्षों को हिलाना आरंभ कर दिया। जिसकी ध्वनि सुनकर धेनुकासुर क्रोधित हो गया और कृष्ण-बलराम पर झपट पड़ा। बलराम जी ने धेनुकासुर का वध करके सभी ग्वालवालों को भयमुक्त कर दिया। तब सभी ने ताल फ़ल खाकर अपनी भूख को शांत किया। यहाँ बल्देव जी का मंदिर और बलभद्र कुण्ड दर्शनीय स्थल हैं।

पोतरा कुंड : श्री कृष्ण जी के जन्म समय के कपड़ों को यहीं धोया गया था। यह श्री कृष्णजन्मस्थान के समीप स्थित है।

भूतेश्वर महादेव : स्वयं भगवान भोलेनाथ भी श्री कृष्ण की दिव्य लीलाओं को देखने के लिये ब्रज में विभिन्न जगह विराजमान हैं। मथुरा की पश्चिम दिशा में स्थित इस मंदिर की मान्यता है कि श्रीकृष्ण जी ने यहाँ महादेवजी को क्षेत्रपाल के रूप में विराजित किया। अतः भूतेश्वर महादेव मथुरा के क्षेत्रपाल कहे जाते हैं। यहाँ पाताल देवी के दर्शन भी हैं।

शान्तनु कुण्ड : यह मथुरा-गोवर्धन मार्ग पर सतोहा ग्राम में स्थित है। यहाँ महाराज शान्तनु ने संतान की कामना हेतु सूर्यदेव जी की उपासना की थी। सूर्यदेव जी ने प्रसन्न होकर उनकी यह इच्छा पूर्ण की। आज भी कृष्ण भक्त संतान की कामना लेकर यहाँ आते हैं। यहाँ शान्तनु बिहारी जी का मंदिर है।

कुमुदवन : यह श्रीकृष्ण का विहार स्थल है। श्री कृष्ण-बलराम अपने सखओं के साथ यहाँ गोचारण के लिये आते थे एवं यहाँ जल क्रीड़ाओं में मग्न हो जाते। सभी सखा अपनी गायों को घेरने चले गये तब श्री कृष्ण जी मधुर बांसुरी बजाने लगे। उस कर्ण प्रिय ध्वनि को सुनकर आकर्षित हुई ब्रजबालाएं मधुर ध्वनि का अनुसरण करते हुए यहाँ आ पहुँची और  बांसुरी की प्रेमरस से भरी ध्वनि में मग्न हो गयीं। इसी वन में गंगा-सागर कुण्ड है।

कंकाली टीला :  यहाँ कंकाली देवी जी का मंदिर है। कंस द्वारा पूजित होने के कारण यह कंस काली या कंकाली देवी कहलाती हैं। यह वही अष्टभुजा सिंहवाहनी दुर्गा देवी हैं, जिन्हें कंस ने देवकी की आठवी संतान समझकर उसे मारना चाहा था किन्तु देवी उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयीं थी।

अम्बिका वन: एक बार नन्दबाबा, यशोदा जी, श्री कृष्ण-बल्देव जी एवं सखाओं के साथ अम्बिका वन में पहुंचे। सभी ने सरस्वती कुण्ड में स्नान किया एवं गोकर्ण महादेव जी की पूजा-अर्चना की। सभी ने रात्रि में यहीं विश्राम किया। तभी रात्रि में एक विशाल अजगर ने नन्दबाबा को जकड़ लिया और उनको निगलने लगा। यह देख श्री कृष्ण जी ने तुरन्त अपने चरण से उस अजगर का स्पर्श किया। कृष्ण जी के चरण स्पर्श से वह शाप मुक्त हो गया जिससे वह अजगर की योनि से मुक्त हो गया और सुन्दर पुरुष के रूप में बदल गया। उसने श्री कृष्ण जी की स्तुति की और बताया कि एक बार अंगीरस नामक कुरूप ऋषि का उपहास करने के कारण उन्होंने मुझे सर्प योनि का अभिशाप दिया था। आज वही अभिशाप मेरे लिये वरदान सिद्ध हुआ है, मैं आपके चरण कमलों के स्पर्श से शाप मुक्त ही नहीं वरन् परम कृतार्थ हो गया। यहाँ महाविद्या देवी जी का मन्दिर है।

कंस किला : यमुना किनारे स्थित यह स्थान जीर्ण क्षीर्ण अवस्था में यह किला कंस किले के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से प्राप्त भग्नावेषों मूर्तियों आदि से सिद्ध हो चुका है कि यह कंस का निवास स्थान था।

बिड़ला मन्दिर : यह मथुरा-वृन्दावन मार्ग पर स्थित है। मन्दिर में पाञ्चजन्य शंख एवं सुदर्शन-चक्र लिये हुए श्री कृष्ण भगवान, सीता-राम एवं लक्ष्मी-नारायण जी विराजमान हैं। दीवारों पर चित्र एवं उपदेशों की रचना मनमोहक हैं। एक स्तम्भ पर सम्पूर्ण श्रीमद्भगवत गीता लिखी हुई है।